दोस्तों कबीर दास जी का जन्म 1398 ई० में हुआ था। आज के हमारे इस लेख में हमने कबीर दास जी के दोहों संकलन किया है यहाँ आपको कबीर दास जी दोहे भावार्थ सहित पढ़ने को मिलेंगे।
कबीर दोहा - सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसार शरीर में जो मैं मेरापन की अहंता ममता हो रही है ज्ञान की अग्नि से इस अहंकार रूपी घर को जला डालो। अपना अहंकार घर को जला डालता है।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षण भंगुर है जैसे प्रभात(सुबह) होते ही तारे छिप जाते हैं और वैसे ही यह देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कहते-सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया और कबीर कहते हैं कि अब भी यह मेरा मन होश में नहीं आता और आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी कहते कि किसी से माँगना मृत्यु के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो और मांगने से अच्छा है मृत्यु को प्राप्त होना एक सच्चा गुरु यही सिखाता है।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
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दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता और कभी भी धन का भूखा नहीं होता। और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो इंसान दूसरों की पीड़ा को समझता है वही सच्चा इंसान है । जो दूसरों के कष्ट को ही नहीं समझ पाता, ऐसा इंसान भला किस काम का!
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कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
कबीर दोहा - सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सत्संग एक सूप(अनाज फटकने वाला सूप) के जैसे है जिससे वह असार का त्याग कर देता है और कहते है तुम भी अच्छा गुरु बनाओ और उनके सत्संग से अपने अंदर की बुराइओं को निकाल दो गुरु का स्मरण करने से उनकी शिक्षा याद आती है जिसके कारण हम बुरे कर्मों से बचे रहते है और हमें कोई विकार नहीं घेरता ।
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कबीर दोहा - संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संत जैसे सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिल जाए फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संत जैसे सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिल जाए फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता
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कबीर दोहा - अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार।
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि आज ही तुम्हारे सभी संकट ख़त्म हो जायेंगे यदि संसार से हार मान कर तुम निरभिमानी जाओ, तुम्हारे मन रुपी घर में अधंकार है जिससे काम, क्रोध, मोह, माया का झगड़ा हो रहा है इन्हे अपने ज्ञान की अग्नि से जला डालो।
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि आज ही तुम्हारे सभी संकट ख़त्म हो जायेंगे यदि संसार से हार मान कर तुम निरभिमानी जाओ, तुम्हारे मन रुपी घर में अधंकार है जिससे काम, क्रोध, मोह, माया का झगड़ा हो रहा है इन्हे अपने ज्ञान की अग्नि से जला डालो।
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कबीर दोहा - ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भव सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कबीर संसारी लोगों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक या गुरु न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
भव सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कबीर संसारी लोगों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक या गुरु न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
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कबीर दोहा - मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास।
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अपने मन को मृतक अर्थात शांत देखकर यह विश्वास मत करो कि वह अब अशांत नहीं होगा आपके असावधान होते ही आपका मन फिर से चंचल हो जाता है। इसीलिए ज्ञानी संत तब तक अपने मन से भयभीत रहते है जब तक कि इस शरीर में साँसे चलती है।
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अपने मन को मृतक अर्थात शांत देखकर यह विश्वास मत करो कि वह अब अशांत नहीं होगा आपके असावधान होते ही आपका मन फिर से चंचल हो जाता है। इसीलिए ज्ञानी संत तब तक अपने मन से भयभीत रहते है जब तक कि इस शरीर में साँसे चलती है।
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कबीर दोहा - झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अरे जीव तू झूठे सुख(माया) को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है. देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अरे जीव तू झूठे सुख(माया) को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है. देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
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कबीर दोहा - जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब तक मन को इस शरीर की आशा और आसक्ति है तब तक मन मृत नहीं हो सकता और न ही उसे कोई मिटा सकता है इसीलिए मन की वासना और शरीर का मोह त्याग कर सतसंग रुपी मैदान में रहना चाहिए।
कबीर दोहा - जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब तक मन को इस शरीर की आशा और आसक्ति है तब तक मन मृत नहीं हो सकता और न ही उसे कोई मिटा सकता है इसीलिए मन की वासना और शरीर का मोह त्याग कर सतसंग रुपी मैदान में रहना चाहिए।
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कबीर दोहा -जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार का नियम हमेशा से यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा और जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार का नियम हमेशा से यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा और जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
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कबीर दोहा - शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल ।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि गुरु के मुख से निकले वचनों का विचार करके जो जीवन में आगे बढ़ता है वह धन्य हो जाता है। वह काम, क्रोध, लोभ, माया से दूर रहता है
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि गुरु के मुख से निकले वचनों का विचार करके जो जीवन में आगे बढ़ता है वह धन्य हो जाता है। वह काम, क्रोध, लोभ, माया से दूर रहता है
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कबीर दोहा -हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह मानव की नश्वर देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह मानव की नश्वर देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
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कबीर दोहा - मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ ।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ।।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसार शरीर में जो मैं मेरापन की अहंता ममता हो रही है ज्ञान की अग्नि से इस अहंकार रूपी घर को जला डालो। अपना अहंकार घर को जला डालता है।
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कबीर दोहा -पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षण भंगुर है जैसे प्रभात(सुबह) होते ही तारे छिप जाते हैं और वैसे ही यह देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
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कबीर दोहा -भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय ।
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिसने अपने अंदर कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया फिर ऐसे संत या भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हो? तुम उन बेचारे अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं या भव सागर से नहीं निकल है।
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिसने अपने अंदर कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया फिर ऐसे संत या भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हो? तुम उन बेचारे अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं या भव सागर से नहीं निकल है।
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कबीर दोहा-कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे मानव ! तू क्या गर्व(अहंकार) करता है? काल(मृत्यु) अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। और तुझे मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे मानव ! तू क्या गर्व(अहंकार) करता है? काल(मृत्यु) अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। और तुझे मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
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कबीर दोहा -मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत ।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मुझे लगा कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर भूत-प्रेत बन गया है। मरने के बाद भी मेरा मन मेरे पीछे पड़ा हुआ है, ऐसा ये मेरा मन बालक की तरह ही है।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मुझे लगा कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर भूत-प्रेत बन गया है। मरने के बाद भी मेरा मन मेरे पीछे पड़ा हुआ है, ऐसा ये मेरा मन बालक की तरह ही है।
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कबीर दोहा -जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब गुण को परखने वाला गाहक(ग्रहण करने वाला ) मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है अर्थात गुण की कोई कीमत नहीं होती ।
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कबीर दोहा -जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जीते-जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरने की कला जानता हो तो। मरने से भी पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर के रहते_रहते जिसके समस्त अहंकार, क्रोध, लोभ, माया समाप्त हो गए, वे वासना-विजयी लोग ही जीवनमुक्त होते हैं
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जीते-जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरने की कला जानता हो तो। मरने से भी पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर के रहते_रहते जिसके समस्त अहंकार, क्रोध, लोभ, माया समाप्त हो गए, वे वासना-विजयी लोग ही जीवनमुक्त होते हैं
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कबीर दोहा -कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि समुद्र की लहरों से मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही उपयोग में लाया जा सकता है ।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि समुद्र की लहरों से मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही उपयोग में लाया जा सकता है ।
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कबीर दोहा -कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कहते-सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया और कबीर कहते हैं कि अब भी यह मेरा मन होश में नहीं आता और आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
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कबीर दोहा -माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख।।
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी कहते कि किसी से माँगना मृत्यु के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो और मांगने से अच्छा है मृत्यु को प्राप्त होना एक सच्चा गुरु यही सिखाता है।
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कबीर दोहा -हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क(मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क(मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
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कबीर दोहा -कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में आकर मैं अपने जीवन में बस यही चाहता हूँ कि सबका भला हो और संसार में यदि मेरी किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में आकर मैं अपने जीवन में बस यही चाहता हूँ कि सबका भला हो और संसार में यदि मेरी किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो।
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कबीर दोहा -दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है और जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता उसी तरह यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है और जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता उसी तरह यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता ।
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कबीर दोहा -निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो हमारी निंदा करता है उसे ज्यादा से ज्यादा अपने पास ही रखना चाहिए जिससे वह बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता जाता है।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो हमारी निंदा करता है उसे ज्यादा से ज्यादा अपने पास ही रखना चाहिए जिससे वह बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता जाता है।
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कबीर दोहा -अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि न तो अधिक बोलना अच्छा है और न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि न तो अधिक बोलना अच्छा है और न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
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कबीर दोहा -बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
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कबीर दोहा -जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
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कबीर दोहा -दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
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कबीर दोहा -जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
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दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
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कबीर दोहा -माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
दोहे का भावार्थ -कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
दोहे का भावार्थ -कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
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कबीर दोहा -धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
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कबीर दोहा -तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
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कबीर दोहा -साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
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कबीर दोहा -पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, भावार्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, भावार्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
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कबीर दोहा -कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
कबीर दोहा -कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
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कबीर दोहा -जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हम जैसा भोजन करते है वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते है वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हम जैसा भोजन करते है वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते है वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।
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कबीर दोहा -कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बुरे वचन विष के समान होते है और अच्छे वचन अमृत के समान लगते है।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बुरे वचन विष के समान होते है और अच्छे वचन अमृत के समान लगते है।
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कबीर दोहा -तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
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कबीर दोहा -कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
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कबीर दोहा -साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता और कभी भी धन का भूखा नहीं होता। और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता।
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कबीर दोहा -माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
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कबीर दोहा -मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
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कबीर दोहा -दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रार्थना करते है। अगर सुख में भगवान को याद किया जाये तो दुःख क्यों होगा।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रार्थना करते है। अगर सुख में भगवान को याद किया जाये तो दुःख क्यों होगा।
कबीर के दोहे अर्थ सहित इन हिंदी
कबीर दोहा -जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता। अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता। अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है।
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कबीर दोहा -जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
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कबीर दोहा -कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
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कबीर दोहा -आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि देखते ही देखते अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करें और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि देखते ही देखते अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करें और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं
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कबीर दोहा -रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा? एक कौड़ी
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा? एक कौड़ी
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कबीर दोहा -बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
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कबीर दोहा -साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे परमात्मा तुम मुझे केवल इतना दो कि जिसमें मेरे गुजरा चल जाये। मैं भी भूखा न रहूँ और अतिथि भी भूखे वापस न जाए।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे परमात्मा तुम मुझे केवल इतना दो कि जिसमें मेरे गुजरा चल जाये। मैं भी भूखा न रहूँ और अतिथि भी भूखे वापस न जाए।
kabir das ji ke dohe arth sahit
कबीर दोहा -काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।
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कबीर दोहा -कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब हम पैदा हुए थे तब सब खुश थे और हम रो रहे थे । पर कुछ ऐसा काम ज़िन्दगी रहते करके जाओ कि जब हम मरें तो सब रोयें और हम हँसें ।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब हम पैदा हुए थे तब सब खुश थे और हम रो रहे थे । पर कुछ ऐसा काम ज़िन्दगी रहते करके जाओ कि जब हम मरें तो सब रोयें और हम हँसें ।
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कबीर दोहा -माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि आज तुम मुझे रौंद रहे हो, पर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तुम भी मिट्टी हो जाओगे और मैं तुम्हें रौंदूंगी!
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि आज तुम मुझे रौंद रहे हो, पर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तुम भी मिट्टी हो जाओगे और मैं तुम्हें रौंदूंगी!
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कबीर दोहा -कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो इंसान दूसरों की पीड़ा को समझता है वही सच्चा इंसान है । जो दूसरों के कष्ट को ही नहीं समझ पाता, ऐसा इंसान भला किस काम का!
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कबीर दोहा -ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिसने कभी अच्छे लोगों की संगति नहीं की और न ही कोई अच्छा काम किया, उसका तो ज़िन्दगी का सारा गुजारा हुआ समय ही बेकार हो गया । जिसके मन में दूसरों के लिए प्रेम नहीं है, वह इंसान पशु के समान है और जिसके मन में सच्ची भक्ति नहीं है उसके ह्रदय में कभी अच्छाई या ईश्वर का वास नहीं होता ।
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कबीर दोहा -नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
कबीर दोहा -नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अगर मन का मैल ही नहीं गया तो ऐसे नहाने से क्या फ़ायदा? मछली हमेशा पानी में ही रहती है, पर फिर भी उसे कितना भी धोइए, उसकी बदबू नहीं जाती ।
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कबीर दोहा -जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।
कबीर दोहा -जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है। हे कल्याण इच्छुक ! तू उसमें मत बंध। नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है। वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर – शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं।
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कबीर दोहा -जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश।
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।।
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मार जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा। जिसे अपने तन मन की की ही सुधि – बूधी नहीं हैं, उसको क्या उपदेश किया?
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कबीर दोहा -बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।
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कबीर दोहा -मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।
है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय।।
है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा बहुत सौदा जाकर लाद लिया। भोगों-एश्वर्यों में लाभ है-लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है।
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कबीर दोहा -बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।।
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बारम्बार तेरे से कहता हूं। जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है। वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।
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कबीर दोहा -बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है। इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा।
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कबीर दोहा -बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।
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कबीर दोहा -गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि गाली से झगड़ा सन्ताप एवं मरने मारने तक की बात आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह सन्त है, और गाली गलौच एवं झगड़े में जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है।
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कबीर दोहा -गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै।
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै।।
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।।।
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै।।
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।।।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, ओ मिली हुई गली भारी ज्ञान है। सहन करने से करोड़ों काम संसार में सुधर जाते हैं। और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है ?
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कबीर दोहा -कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।
इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया। तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया। भावार्थात् तन-मन को वश में कर लिया।
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कबीर दोहा -इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए।
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कबीर दोहा -कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अपने को सर्वोपरि
मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे।
चेतावनी दोहे
कबीर दोहा -कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
दोहे का भावार्थ -कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।
कबीर के 200+ दोहे अर्थ सहित
कबीर दोहा -कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट दुष्टोंतथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
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कबीर दोहा -पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है। चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो। फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है !
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कबीर दोहा -एक ही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी। रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी – इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा। किन्तु सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है !
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कबीर दोहा -हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है । कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है !
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कबीर दोहा -देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है !
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कबीर दोहा -कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं
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कबीर दोहा -मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
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कबीर दोहा -हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही हो तो अपनी पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है !
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कबीर दोहा -प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता। प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं !
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कबीर दोहा -पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?
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कबीर दोहा -पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।
कबीर दोहा -पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं। जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा। प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।
कबीर के दोहे स्टेटस
कबीर दोहा -मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं।यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
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कबीर दोहा -तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है। किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ। कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी। मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।
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कबीर दोहा -जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है। अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है। एकाकार हो जाती है।
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कबीर दोहा -काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल अर्थात मृत्यु उस पर हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी दुखभरी बात है।
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कबीर दोहा -तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो ।जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !
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कबीर दोहा -मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया
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कबीर दोहा -जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना।
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कबीर दोहा -कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती। चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – वामन – बौना भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा। वह सुवासित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा। आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा
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कबीर दोहा -ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे।
कबीर दास की वाणी
कबीर दोहा -मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मूर्ख का साथ मत करो।मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है । संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।
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कबीर दोहा -क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।
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कबीर दोहा -कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है । लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है। इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए। संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना चाहिए ।
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कबीर दोहा -करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ।
कबीर दोहा -करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है।जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं।
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कबीर दोहा -झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ।
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है। पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।
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कबीर दोहा -करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?
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कबीर दोहा -हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए !
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कबीर दोहा -मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
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कबीर दोहा -कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं जिनके सर पर विषय वासनाओं का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।
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कबीर दोहा -मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।
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कबीर दोहा -तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि तेरा साथी कोई भी नहीं है। सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। भावार्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है !
कबीर दास की चौपाई
कबीर दोहा -हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं।
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कबीर दोहा -कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो ! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो !
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कबीर दोहा -कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं।यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा। शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है – अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते !
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कबीर दोहा -कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – अर्थात शरीर का अंग अंग - शैवाल अर्थात काई में बदल गई। इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो।
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कबीर दोहा -बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया। कुछ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो ! जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है – उसे खबर भी नहीं लगती – नुक्सान हो चुका होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच सकते हैं ! इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को - जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर – अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत !
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कबीर दोहा -जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे। जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना।
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कबीर दोहा -कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और आप भी धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए
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कबीर दोहा -सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं। हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता ! जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह इस संसार में होता है !।
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कबीर दोहा -कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है। स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है। हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है।
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कबीर दोहा -कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता। जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
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कबीर दोहा -नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि हे प्रिय ! प्रभु तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं !
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कबीर दोहा -इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है !
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कबीर दोहा -लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं। हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं।
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कबीर दोहा -जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं। प्रेम जीवन की सार्थकता है। प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।
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कबीर दोहा -कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा – जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !
कबीर दास के भजन
कबीर दोहा -मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ। मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?
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कबीर दोहा -यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था।जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।
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कबीर दोहा -मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता ।
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कबीर दोहा -जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।
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कबीर दोहा -मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।
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कबीर दोहा -कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
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कबीर दोहा -इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !
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कबीर दोहा -झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए।
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कबीर दोहा -कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे। इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।
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कबीर दोहा -हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।
कबीर दोहा -हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है।सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? भावार्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
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कबीर दोहा -बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं।
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कबीर दोहा -ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।
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कबीर दोहा -लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट ।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।
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कबीर दोहा -कागा का को धन हरे, कोयल का को देय ।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।
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कबीर दोहा -कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।
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कबीर दोहा -आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जो इस दुनियां में आया है उसे एक दिन जरूर जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।
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कबीर दोहा -ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार ।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि ये संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।
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कबीर दोहा -माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।
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कबीर दोहा -शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
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कबीर दोहा -राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्यूंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।
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कबीर दोहा -नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिमबर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
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कबीर दोहा -कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।
कबीर दोहा -कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
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कबीर दोहा -प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।
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कबीर दोहा -जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।
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कबीर दोहा -तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं
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कबीर दोहा -जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
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कबीर दोहा -जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जिस मनुष्य के ह्मदय में प्रेम की लगन नहीं है, उसका ह्मदय श्मशान के सदृश सूना है और वह स्वयं जीते जी मृतक समान है। जिस प्रकार लोहार की धोंकनी निर्जीव खाल होने पर भी साँस लेती है। वैसे ही प्रेम से हीन मनुष्य भी देखने में निस्सन्देह साँस लेता, चलता फिरता और काम काज करता दिखायी देता है; किन्तु यथार्थतः वह मृतक ही है।
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कबीर दोहा -जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
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कबीर दोहा -ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।
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कबीर दोहा -चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।
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कबीर दोहा -ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।
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कबीर दोहा -सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है।
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कबीर दोहा -यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि यह जो शरीर है वो विष जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीशसर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
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कबीर दोहा -गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
दोहे का भावार्थ - कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि अगर हमारे सामने गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे? गुरु ने अपने ज्ञान से ही हमें भगवान से मिलने का रास्ता बताया है इसलिए गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर है और हमें गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए।
आज आपने हमारे इस लेख में कबीरदास जी के दोहे भावार्थ सहित पढ़े कबीरदास जी के ये दोहे पढ़कर आपको कैसा और यदि कबीरदास जी संकलन और भावार्थ में किसी प्रकार की त्रुटि हुई है तो हमारी टीम आपसे क्षमा चाहती है और उस गलती को आप नीचे कमेंट करके जरूर बताएं।